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छुरा जंगल में दो तेंदुओं की रहस्यमयी मौत: शिकार या सिस्टम की चूक?

गरियाबंद/छुरा । छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले के छुरा क्षेत्र के बीहड़ जंगलों में तेंदुओं की दो रहस्यमयी मौतों ने पूरे इलाके को सकते में डाल दिया है। भरुवामुड़ा और पंडरीपानी के घने जंगलों में मिले सड़े-गले शवों ने वन्यजीव संरक्षण व्यवस्था की गंभीरता पर कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

बदबू से कांप उठा जंगल, वीडियो वायरल होने पर जागे अधिकारी

ग्रामीणों के अनुसार, मृत तेंदुओं की दुर्गंध कई दिनों से जंगल में फैली हुई थी। ग्रामीण जब तेंदूपत्ता तोड़ने जंगल पहुंचे, तब उन्हें लगभग 500 मीटर की दूरी पर दो अलग-अलग स्थानों पर तेंदुओं के शव दिखाई दिए—एक निचले हिस्से में तो दूसरा पहाड़ी गुफा के बाहर पड़ा था।

डर, अंधविश्वास और शिकारियों के भय से ग्रामीणों ने पहले यह बात छिपा ली, लेकिन जब किसी ने वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाला, तब जाकर विभाग हरकत में आया।

खाल, नाखून, अंग गायब: सुनियोजित शिकार की आशंका

मौके पर पहुंचे वन अधिकारियों को शव के कई हिस्से गायब मिले — कीमती खाल, नाखून और आंतरिक अंग नहीं थे। इससे इस बात की आशंका और भी गहरी हो गई कि यह तेंदुए किसी सामान्य घटना के शिकार नहीं, बल्कि किसी सुनियोजित वन्यजीव तस्करी गिरोह के निशाने पर थे।

एक तेंदुआ या दो? विभागीय दावों पर सवाल

वनमंडलाधिकारी लक्ष्मण सिंह का कहना है कि प्रथम दृष्टया यह एक ही तेंदुए का शव प्रतीत होता है, संभवतः कुछ भाग scavengers द्वारा खा लिया गया हो। लेकिन स्थानीय ग्रामीणों का दावा है कि उन्होंने अपनी आंखों से दो अलग-अलग तेंदुओं के शव देखे हैं।

तीन दिन सड़ते रहे शव, विभाग को भनक तक नहीं

यह सवाल अब सीधे विभाग की कार्यप्रणाली पर उठने लगे हैं—अगर जंगल में कोई वन्यजीव तीन दिन तक मृत पड़ा हो और विभाग को इसकी जानकारी न हो, तो गश्त और निगरानी तंत्र की हकीकत अपने आप उजागर हो जाती है।

शिकारियों का नेटवर्क या जल संकट की मार?

शुरुआती जांच भले ही शिकार की ओर इशारा कर रही हो, लेकिन स्थानीय सूत्रों और परिस्थितियों से एक और वजह सामने आ रही है — गर्मियों में जलस्रोतों के सूखने से प्यासे वन्यजीवों का गांव की ओर आना और फिर वहां फंसकर मारा जाना।

जंगल के अंदरूनी हिस्सों में तालाब और अन्य जलस्रोत या तो पूरी तरह सूख चुके हैं या सालों से सिर्फ कागजों पर मौजूद हैं।

‘तालाब बनाओ, फोटो खिंचाओ, फाइल बंद करो’ – यही है योजना का सच?

सरकार हर साल जल, चारा और वन्यजीव संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपये का बजट देती है। तालाब खोदने, बोरवेल लगाने, जल स्रोत विकसित करने की योजनाएं बनाई जाती हैं। लेकिन जमीनी हकीकत यह है कि अधिकांश तालाब सिर्फ रिपोर्ट में मौजूद हैं—जहां बने भी हैं, वहां पानी नहीं या काम अधूरा छोड़ दिया गया है।

प्यासे जानवर गांव आते हैं, और मौत उनका इंतजार करती है

गर्मी में जैसे-जैसे जंगल जल स्रोत विहीन होता है, तेंदुए, हिरण, यहां तक कि हाथी जैसे बड़े जीव भी पानी की तलाश में गांवों की ओर आते हैं। वहां वे या तो शिकारियों के शिकार बनते हैं, या मानव-वन्यजीव संघर्ष का शिकार हो जाते हैं।

सिर्फ औपचारिकताएं नहीं, ज़मीन पर काम चाहिए

वन विभाग की प्रतिक्रिया—”जांच चल रही है”, “टीम गठित”, “सूचना देने पर इनाम”, और “गांवों में मुनादी” जैसी कार्रवाइयों तक सीमित है। पर क्या कभी ये पूछा गया है कि:

  • इस साल गर्मी शुरू होते ही कितने जल स्रोत चालू किए गए?
  • कितनी बार नियमित गश्त की गई?
  • कितने तालाबों में पानी भरा गया?

या फिर यह भी बाकी मामलों की तरह सिर्फ कागजों तक सीमित रह जाएगा?

सिर्फ जंगल नहीं, व्यवस्था की भी हो रही है मौत

इन मौतों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हम वन्यजीवों को नहीं, सिर्फ योजनाओं को चला रहे हैं। एक ओर बाघ-तेंदुओं की संख्या बढ़ाने के दावे होते हैं, दूसरी ओर प्यास, भूख और लापरवाही के चलते वे मरते जा रहे हैं।

10,000 का इनाम और मुनादी: क्या इतना काफी है?

अब विभाग ने सूचना देने वालों को ₹10,000 का इनाम और गांवों में मुनादी कराने की घोषणा की है। लेकिन क्या इससे शिकार और वन्यजीवों की मौतें रुकेंगी? क्यों नहीं पहले से गांवों को प्रशिक्षित किया गया, जागरूकता फैलाई गई?

प्रश्न सीधा है: मरे तेंदुए या मरा तंत्र?

गरियाबंद वनमंडल में यह कोई पहला मामला नहीं है। बीते दो वर्षों में भी दुर्लभ वन्यजीवों की रहस्यमयी मौतें हुई हैं। हर बार निष्कर्ष यही रहा—“शव को लकड़बग्घा खा गया”, “अज्ञात कारण”।

इस बार क्या कोई ठोस कार्रवाई होगी? या फिर यह भी सिर्फ एक केस फाइल बनकर धूल खाएगा?

जब जंगल का सबसे बड़ा शिकारी प्यासा मरता है, तो समझ लीजिए जंगल की आत्मा मर रही है।

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