
रक्तदान करने से पहले सौ नहीं, अब हजार बार सोचिए — जब आपको या आपके परिजन को जरूरत पड़ेगी, तो सिस्टम और समाज दोनों आपका साथ नहीं देंगे! आपको खोजना पड़ेगा रक्तदाता…….
रक्तदान करने से पहले सौ नहीं, अब हजार बार सोचिए
जब आपको या आपके परिजन को जरूरत पड़ेगी
तो सिस्टम और समाज दोनों आपका साथ नहीं देंगे!
आपको खोजना पड़ेगा रक्तदाता…….

महासमुंद।यह कोई काल्पनिक कहानी नहीं, यह एक कटु सत्य है — एक ऐसे व्यक्ति की आपबीती जिसने बरसों तक निस्वार्थ भाव से समाज के लिए रक्तदान किया, लेकिन जब उसके अपने परिजन को रक्त की आवश्यकता पड़ी, तो पूरा सिस्टम और तथाकथित “सेवा भावी” समाजसेवी संगठन उसे अकेला छोड़ गए।
यह घटना सिर्फ महासमुंद जिला अस्पताल के ब्लड बैंक की संवेदनहीनता का आईना नहीं है, बल्कि उन दिखावटी रक्तदान संस्थाओं पर भी करारा तमाचा है जो सेवा के नाम पर फोटो खिंचवाने और प्रेस नोट जारी करने में व्यस्त रहती हैं। “जीवनदान” नहीं, अब ‘अपमानदान’ बन चुका है रक्तदानरक्तदान को महान कार्य बताया जाता है।
कहा जाता है — “आपका एक यूनिट रक्त तीन जीवन बचाता है।”लेकिन जब वही व्यक्ति अपने परिवारजन के लिए रक्त मांगने जाए और ब्लड बैंक का कर्मचारी उसे “जाओ, रक्त दाता लाओ” कहकर भगा दे, तो यह नारा सिर्फ खोखले प्रचार का प्रतीक रह जाता है।
यह घटना महासमुंद जिला चिकित्सालय (मेडिकल कॉलेज) की है, जहां पत्रकार और समाजसेवी, डॉ. भास्कर राव जिन्होंने कई बार महासमुंद और रायपुर के ब्लड बैंकों में स्वेच्छा से रक्तदान किया था, अपने परिजन — राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कर्मठ स्वयंसेवक आचार्य जी— के लिए रक्त मांगने पहुंचे।
लेकिन ब्लड बैंक में पदस्थ कर्मचारी एम.एल. चक्रधारी ने न केवल असहयोग किया बल्कि अपमानजनक व्यवहार किया।
मरीज ने स्वयं उन्हें बताया कि वह स्वयं रक्तदाता हैं मरीज ने अपने रक्तदान का प्रमाण पत्र भी दिखाया। जिस पर जिला चिकित्सालय के ब्लड बैंक में पदस्थ कर्मचारी ने कहा कि — “पुराना रक्तदान अब किसी काम का नहीं, नया दाता खोजिए।”साथ ही साथ कहा कि – ब्लड रिक्विजिशन फॉर्म में मरीज का सरनेम नहीं लिखा है उसे भी डॉक्टर से लिखवाकर लाओ । यह वाक्या दोपहर 2:30 बजे का है जब डॉक्टरों की शिफ्ट बदल जाती है और जिस डॉक्टर ने ब्लड रिक्विजिशन फॉर्म भरा है वह दूसरे दिन आयेगा, ऐसी जानकारी देने के बाद भी ब्लड बैंक कर्मचारी एम एल चक्रधारी ने असहयोग जताया, जब बहस बढ़ी तो कहीं जाकर 1 घंटे बाद आकर ब्लड ले जाना कहा ।
दाता आने के बाद भी नहीं चढ़ा रक्त — डॉक्टर का इंतजार करता रहा मरीज
पहले दिन तो मरीज लेखराम पटेल को रक्त चढ़ गया लेकिन जब दूसरे दिनके लिए रक्त की व्यवस्था दानदाता के माध्यम से की गई ।साथ ही पहले दिन चढे रक्त की पूर्ति भी दानदाता के माध्यम से कराई गई ।
नए दाता के आने के पश्चात ब्लड की व्यवस्था तो हो गई, लेकिन मरीज जिस पुरुष वार्ड में भर्ती है वहां के कर्मचारियों ने मरीज के अटेंडर से कहा गया कि डॉक्टर के आने के बाद ही रक्त चढ़ाया जाएगा।
परंतु घंटे भर से अधिक समय बीत जाने के बाद भी ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर नहीं पहुंचे। परिणाम स्वरूप मरीज लेखराम पटेल को ब्लड का जो दूसरा यूनिट चढ़ना था रक्त नहीं चढ़ पाया।
इस प्रकार उनके द्वारा मरीज के परिजन को जो स्वयं दानदाता है उसे परेशान किया।क्या यही है वह “मानवता” जिसकी दुहाई ब्लड बैंक और रक्तदान संस्थाएं दिन-रात देती हैं?
ब्लड बैंक की संवेदनहीनता — और समाजसेवी संगठनों की खामोशी
ब्लड बैंक के कर्मचारी ने स्पष्ट कहा कि *“दान किया गया रक्त केवल एक महीने तक मान्य रहता है, उसके बाद ब्लड बैंक की कोई जिम्मेदारी नहीं।”
यह बयान न केवल हास्यास्पद है बल्कि पूरे रक्त प्रबंधन तंत्र पर सवालिया निशान है। लेकिन इससे भी बड़ा अपराध है — उन समाजसेवी संस्थाओं का मौन अपराध। जो लोग हर रक्तदान शिविर में “सेवा ही धर्म है” के बैनर लगाकर तस्वीरें खिंचवाते हैं,जो सोशल मीडिया पर “हमने 50 यूनिट रक्त एकत्र किया” का ढिंढोरा पीटते हैं,वे सब उस वक्त कहां गायब हो जाते हैं जब एक रक्तदाता को खुद मदद की आवश्यकता होती है?
ये संस्थाएं समाजसेवा नहीं, सेल्फ-प्रमोशन का कारोबार बन चुकी हैं।इनके “सेवा शिविर” अब फोटोशूट और प्रचार अभियान बन गए हैं। जनता के खून से कुछ लोग “सोशल क्रेडिट” और “राजनीतिक पहचान” बना रहे हैं।
रक्तदान संस्था या “ब्लड ब्रोकर”?
सच्चाई यह है कि कई तथाकथित रक्तदान संगठन ब्लड बैंक से सांठगांठ कर चुके हैं।इनके पास जरूरतमंदों की लिस्ट नहीं, बल्कि “मांग और आपूर्ति” का एक गुप्त नेटवर्क होता है।जब रक्त की वास्तविक आवश्यकता किसी गरीब या सामान्य नागरिक को होती है, तो वही संगठन “दानदाता” का नंबर देने के नाम पर कृपा दिखाते हैं —जो असल में उसी व्यक्ति का खून होता है जिसने पहले ही दान किया था।ऐसी संस्थाओं के लिए रक्तदान अब सेवा नहीं, बल्कि पब्लिसिटी और प्रभाव की मार्केटिंग बन चुका है।इनकी प्राथमिकता अब समाज नहीं, मीडिया कवरेज और राजनीतिक संपर्क बन गई है।
सवालों के घेरे में पूरा सिस्टम
अब सवाल सिर्फ ब्लड बैंक तक सीमित नहीं रहा।सवाल है —
क्या किसी भी जिले में रक्तदान करने वालों का डाटा बेस सुरक्षित रखा जाता है?
क्या किसी रक्तदाता को प्राथमिकता देने की कोई नीति है?
क्या ब्लड बैंक और समाजसेवी संस्थाओं के बीच कोई जवाबदेही तय की गई है?
और सबसे अहम — क्या “स्वेच्छा” के नाम पर युवाओं से झूठे वादे किए जा रहे हैं?
अगर जवाब “नहीं” है, तो यह पूरा सिस्टम भ्रष्ट, खोखला और अमानवीय है। स्वेच्छा दानकर्ताओं से धोखा – सिस्टम के नाम पर मज़ाक यह समझना जरूरी है कि रक्तदान करने वाला व्यक्ति केवल खून नहीं देता —वह अपनी आस्था, भरोसा और मानवता सौंपता है।लेकिन जब उसी भरोसे को ब्लड बैंक और तथाकथित सामाजिक संगठन अपने स्वार्थ के लिए कुचल देते हैं,तो यह केवल एक व्यक्ति का नहीं, पूरे समाज का अपमान होता है।
क्या सरकार सो रही है?
स्वास्थ्य विभाग और जिला प्रशासन को तत्काल संज्ञान लेना चाहिए — ब्लड बैंक कर्मचारियों के आचरण की जांच हो।
स्वेच्छा रक्तदाताओं के लिए “प्राथमिकता कार्ड” जारी किए जाएं।
रक्तदान संस्थाओं का ऑडिट और सत्यापन किया जाए कि उन्होंने वास्तव में कितना रक्त जरूरतमंदों तक पहुंचाया और कितना सिर्फ रिपोर्ट में दिखाया।
जो संगठन प्रचार के नाम पर जनता को भ्रमित कर रहे हैं, उनका पंजीयन रद्द किया जाए।
रक्तदान नहीं, अब सुधारदान की आवश्यकता है । अब वक्त आ गया है कि लोग आंख मूंदकर रक्तदान न करें। क्योंकि आज जो व्यवस्था है, वह “जनसेवा” नहीं बल्कि “जनभावना से खिलवाड़” बन चुकी है।जब तक ब्लड बैंक पारदर्शी नहीं बनेंगे, जब तक समाजसेवी संस्थाएं अपने स्वार्थ से ऊपर नहीं उठेंगी,तब तक “रक्तदान महादान” नहीं बल्कि “रक्तदान अपमानदान” ही रहेगा। इसलिए —रक्तदान करने से पहले सौ नहीं, हजार बार सोचिए। क्योंकि आज के हालात में रक्तदान आपका नहीं, ब्लड बैंक और संस्थाओं का लाभदान बन चुका है।
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– एक रक्तदाता की सच्ची आपबीती से उपजा सवाल, महासमुंद से यह संपादकीय न केवल एक व्यक्ति की वेदना है, बल्कि उस पूरे सिस्टम के विरुद्ध जन चेतावनी है, जो सेवा के नाम पर संवेदनहीनता बेच रहा है।





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