
“पोस्टर की राजनीति” में फंसा धमतरी नगर निगम — प्रशासन की नीति पर सवाल, संवेदनशीलता पर चोट
“पोस्टर की राजनीति” में फंसा धमतरी नगर निगम — प्रशासन की नीति पर सवाल, संवेदनशीलता पर चोट
संपादकीय

धमतरी ।धमतरी नगर निगम इन दिनों एक छोटे से पोस्टर को लेकर बड़ी राजनीतिक और सामाजिक फजीहत झेल रहा है। मामला भले दिखने में मामूली लगे — एक समाज द्वारा स्वागत द्वार पर पोस्टर लगाने और फिर उसे हटाने का — पर इस घटना ने प्रशासनिक सोच, राजनीतिक दबाव और सामाजिक संतुलन के ढांचे को उजागर कर दिया है।विंध्यवासिनी वार्ड के तीनों स्वागत द्वार, जो धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं, पर पहले से ही “जय मां विंध्यवासिनी” अंकित है। नगर निगम ने कुछ समय पूर्व इन पर नोटिस चस्पा कर साफ लिखा था कि कोई भी व्यक्ति या संगठन यहां पोस्टर नहीं लगाएगा। उद्देश्य था — धार्मिक स्थलों और सार्वजनिक संपत्तियों को प्रचार-प्रसार से मुक्त रखना।लेकिन हकीकत यह है कि निगम के अपने आदेश ही निगम के गले की फांस बन गए हैं।
एक पोस्टर, कई चेहरे
जब एक सामाजिक संगठन ने धार्मिक कार्यक्रम से संबंधित पोस्टर इन स्वागत द्वारों पर लगाए, तो निगम की टीम तुरंत सक्रिय हुई। आदेश का हवाला देते हुए पोस्टर हटा दिए गए।यहीं से शुरू हुई पोस्टर की राजनीति।
समाज विशेष के लोगों ने सवाल उठाया — “जब बाकी सभी लोग पोस्टर लगाते हैं, तो हमारा समाज क्यों नहीं?”नतीजा यह हुआ कि रातोंरात वही पोस्टर फिर से उसी जगह लगा दिए गए।अब यह सिर्फ पोस्टर नहीं, बल्कि “आदेश बनाम दबाव” की लड़ाई बन गई।
निगम की नीति पर बेजवाब सवाल
अगर किसी नियम का पालन सिर्फ चुनिंदा मौकों पर किया जाए, तो वह नियम नहीं, औपचारिकता बन जाता है।धमतरी नगर निगम ने पहले तो पोस्टर लगाने पर रोक का आदेश जारी किया, फिर उसी आदेश के पालन पर खुद सवाल खड़े कर दिए।सूत्रों के अनुसार, पोस्टर हटाने का आदेश ऊपर से आया था, लेकिन जब मामला समाज विशेष से जुड़ा तो “राजनैतिक समीकरण” हावी हो गए।यह प्रशासन की कमजोरी नहीं तो और क्या है कि एक नोटिस का वजन एक पोस्टर से भी हल्का पड़ गया।
जनप्रतिनिधियों की दोहरी चुनौती
निगम के जनप्रतिनिधियों की स्थिति इस समय “संतुलन साधने वाले रस्सीबाज़” जैसी है।एक ओर उन्हें निगम की साख बचानी है, तो दूसरी ओर स्थानीय समाजों और मतदाताओं की नाराज़गी से बचना है।कौन आदेश दे रहा है और कौन पलट रहा है — इसका जवाब देने को कोई तैयार नहीं।राजनीति के दबाव में प्रशासन की निष्पक्षता बंधक बनती जा रही है।
धर्मस्थल बनाम प्रचारस्थल
सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या धार्मिक आस्था से जुड़े स्थानों को राजनीतिक या सामाजिक प्रचार का मंच बनाया जाना चाहिए?जब स्वागत द्वारों पर “जय मां विंध्यवासिनी” अंकित है, तो उन पर पोस्टर लगाना स्वयं आस्था का अपमान है।अगर हर समाज, हर संगठन अपने-अपने पोस्टर लगाने लगे तो आस्था के प्रतीक आखिर बचे कैसे रहेंगे?निगम की यह जिम्मेदारी थी कि वह इस सिद्धांत को समान रूप से लागू करे — लेकिन उसने खुद ही समानता की रेखा धुंधली कर दी।
संदेश जो गया उल्टा
इस पूरे घटनाक्रम ने जनता में यह संदेश दिया है कि नियम सिर्फ कमजोरों के लिए हैं, ताकतवर या प्रभावशाली समूह उनके ऊपर हैं।यही सोच प्रशासनिक अनुशासन को खोखला करती है।निगम को यह समझना होगा कि “पोस्टर लगाना या हटाना” सिर्फ भौतिक क्रिया नहीं, बल्कि विश्वसनीयता और नीति-निष्ठा की परीक्षा है।
धमतरी की इस पोस्टर राजनीति ने यह साबित कर दिया कि शहर में प्रशासनिक अनुशासन से ज्यादा राजनीतिक दबाव का असर चलता है।अगर नगर निगम को वाकई अपनी साख बचानी है, तो उसे स्पष्ट नीति बनानी होगी —या तो सभी के लिए एक समान नियम लागू हों, या फिर किसी के लिए नहीं।क्योंकि शहर की जनता अब यह भलीभांति समझ चुकी है कि – “यहां नियमों का पालन नहीं, बल्कि पहचान और प्रभाव का वजन चलता है।”
