
एंबुलेंस ड्राइवर ने लगाया टांका! यह मानवीय पहल है या स्वास्थ्य व्यवस्था की विफलता?
एंबुलेंस ड्राइवर के द्वारा टांका लगाना – मानवीय पहल ह या स्वास्थ्य व्यवस्था की विफलता?
बागबाहरा ।
12 अगस्त की रात बागबाहरा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) में जो हुआ, उसने महासमुंद जिले की स्वास्थ्य सेवाओं की असली तस्वीर सबके सामने रख दी। सड़क हादसे में घायल युवक को डॉक्टर के सामने खड़ा कर दिया गया और टांके लगाने का जिम्मा सौंप दिया एक निजी एंबुलेंस ड्राइवर को। न मास्क, न नियम और न ही कोई योग्यता।

यह कोई मामूली घटना नहीं। यह उस व्यवस्था का आईना है, जहाँ सरकारी अस्पताल मरीज की जिंदगी से खिलवाड़ का अड्डा बनते जा रहे हैं।
सवालों के घेरे में स्वास्थ्य विभाग

जब डॉक्टर मौजूद थे तो जिम्मेदारी ड्राइवर पर क्यों डाली गई?
सीएचसी परिसर में निजी एंबुलेंस चालक मनोज यादव जैसे बाहरी लोग अंदर कैसे घूमते रहते हैं?
टांके लगाने की सुई, कैंची और ग्लव्स आखिर उसे किसने उपलब्ध कराए?
यह लापरवाही है या फिर मिलीभगत?
आम जनता का भरोसा टूटा
घायल के परिजनों का दर्द साफ है – “अगर डॉक्टर होते हुए भी ड्राइवर से टांका लगवाया जा रहा है, तो अस्पतालों पर लोगों का भरोसा किस तरह कायम रहेगा?”
यह सवाल सिर्फ एक परिवार का नहीं, बल्कि पूरे समाज का है।
बीएमओ और CHMO के बयान
बागबाहरा बीएमओ डॉ. बुधियार सिंग बढ़ई ने कहा –
“घटना के दौरान मैं ड्यूटी पर नहीं था। यह गंभीर मामला है। इसकी जांच कराई जाएगी और जांच में जो भी दोषी पाया जाएगा, उस पर कार्यवाही होगी।”
वहीं महासमुंद सीएचएमओ डॉ. आई. नागेश्वर राव ने बताया कि –
“मैंने इस मामले में बीएमओ से पूरी जानकारी मांगी है। दोषियों पर कड़ी कार्यवाही की जाएगी।”
स्पष्ट है कि विभागीय अधिकारी मामले को गंभीर बता रहे हैं, लेकिन जनता को इन बयानों से ज्यादा ठोस कार्यवाही की उम्मीद है।
ग्रामीण विचारक की सोच – मानवीय दृष्टिकोण भी है ज़रूरी
इस पूरे प्रकरण पर एक ग्रामीण विचारक की सोच बेहद महत्वपूर्ण है। उनका कहना है कि हमें हर घटना को केवल लापरवाही के चश्मे से ही नहीं देखना चाहिए, बल्कि मानवीय दृष्टिकोण से भी परखना होगा।
वे कहते हैं –
“ग्रामीण क्षेत्रों की वास्तविकता यह है कि वहाँ डॉक्टर और ड्रेसर 24 घंटे मौजूद नहीं रहते। कई बार आपातकालीन हालात में स्टाफ नर्स या अन्य कर्मचारी ही आगे बढ़कर मरीज की जान बचाने की कोशिश करते हैं। यदि कोई एंबुलेंस ड्राइवर प्राथमिक चिकित्सा करने में प्रशिक्षित है और उसने आपातकालीन स्थिति को देखते हुए घायल की जान बचाने की नीयत से टांके लगाए, तो इसे केवल अपराध नहीं, बल्कि एक मानवीय पहल भी माना जाना चाहिए।“
उनके अनुसार –
“यदि ऐसे मानवीय प्रयासों पर कार्यवाही होगी, तो इसका खौफ उन लोगों पर भी हावी होगा जो दुर्घटनाओं के समय आगे बढ़कर मदद करते हैं। इसका नतीजा यह होगा कि कोई भी व्यक्ति घायल को हाथ लगाने से कतराएगा और कई जानें समय रहते बचाई नहीं जा सकेंगी।”
ग्रामीण विचारक यह भी याद दिलाते हैं कि –
“अगर प्रशासन वास्तव में कार्यवाही करना चाहता है, तो उसे सबसे पहले झोला-छाप डॉक्टरों पर शिकंजा कसना चाहिए, जो बिना डिग्री और बिना प्रशिक्षण के आए दिन ग्रामीणों की जान से खिलवाड़ करते हैं।जबकि स्वास्थ्य प्रशासन के द्वारा इन झोलाछाप डॉक्टरों के ऊपर केवल नाम मात्र कार्यवाही ही होती है।”
यह दृष्टिकोण इस मुद्दे को नया आयाम देता है। सवाल यह है कि – क्या सिस्टम की नाकामी का भार उन लोगों पर डाला जाना चाहिए जो आपातकालीन स्थिति में किसी घायल की जान बचाने की कोशिश करते हैं?
20 दिन बाद क्यों उठा मामला?
यह घटना हुई 12 अगस्त को लेकिन मामला सामने आया 20 दिन बाद।
क्या यह देरी महज़ संयोग है? या फिर “सेटिंग और लेन-देन” का खेल खेला गया?
सोशल मीडिया पर लोग चुटकी ले रहे हैं –
“क्या मरीज की जान से जुड़ा मुद्दा भी अब सौदेबाजी की थाली में परोसा जाने लगा है?”
जनता का आक्रोश
वीडियो वायरल होते ही लोगों ने जमकर तंज कसे।
किसी ने कहा – “स्वास्थ्य विभाग को अस्पताल बंद कर देने चाहिए और एंबुलेंस ड्राइवरों को ही डॉक्टर बना देना चाहिए।”
तो किसी ने लिखा – “यह सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि मरीज की जिंदगी से किया गया सीधा खिलवाड़ है।”
अब फैसला चाहिए, वादा नहीं
यह मामला केवल एक अस्पताल की लापरवाही नहीं, बल्कि उस जर्जर स्वास्थ्य व्यवस्था की कहानी है, जहाँ जिम्मेदारी से ज्यादा बयानबाजी को अहमियत दी जाती है।
अब यह प्रशासन पर है कि –
क्या वह दोषियों पर कठोर कार्यवाही करेगा?
क्या ग्रामीण अस्पतालों में संसाधन और प्रशिक्षित स्टाफ की वास्तविक व्यवस्था करेगा?
या फिर यह मामला भी महज़ अखबार की सुर्खियों और सोशल मीडिया की हलचल तक सिमट जाएगा?
जवाब जनता चाहती है, और इस बार सिर्फ वादा नहीं, ठोस कार्यवाही।
