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छुरा में आदिवासी ज़मीन की दोहरी रजिस्ट्री से हड़कंप….

गैरकानूनी तरीके से ओबीसी को बेची गई भूमि, कानून और अधिकारों की खुली अनदेखी

गरियाबंद, छत्तीसगढ़।गरियाबंद ज़िले के आदिवासी बहुल क्षेत्र छुरा ब्लॉक के ग्राम हीराबतर से एक गंभीर मामला सामने आया है, जिसने न केवल स्थानीय प्रशासन की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं, बल्कि आदिवासी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों की भी अनदेखी को उजागर किया है।

मामले के अनुसार, हीराबतर गांव निवासी गणेशी पिता विसराम, जो अनुसूचित जनजाति (ST) वर्ग से हैं, की भूमि की गैरकानूनी ढंग से दो बार रजिस्ट्री की गई — वह भी ओबीसी वर्ग के दो अलग-अलग व्यक्तियों के नाम।

क्या है पूरा मामला?

  • ग्राम हीराबतर के आदिवासी नागरिक गणेशी द्वारा किसी आवश्यक कार्य हेतु अपनी भूमि का सौदा किया गया।
  • लेकिन आश्चर्यजनक रूप से एक ही भूमि की दो अलग-अलग रजिस्ट्रियां हुईं और वह भी गैर-आदिवासी खरीदारों (OBC) के नाम।
  • इस प्रक्रिया में कलेक्टर की अनुमति, ग्रामसभा की मंजूरी और भूमि सत्यापन जैसे जरूरी कानूनी पहलुओं को दरकिनार कर दिया गया।

कानून का सीधा उल्लंघन

  1. छत्तीसगढ़ भू-राजस्व संहिता, 1959 की धारा 170(B) के अनुसार, आदिवासी भूमि की बिक्री गैर-आदिवासी को बिना कलेक्टर की अनुमति के अवैध है।
  • ऐसी बिक्री शून्य (Void ab initio) मानी जाती है।
  1. पेसा अधिनियम, 1996 के अंतर्गत, अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि हस्तांतरण के लिए ग्रामसभा की अनुमति अनिवार्य है।
  • इस अधिनियम की धारा 4(k) और 4(m) का स्पष्ट उल्लंघन हुआ है।
  1. भारतीय संविधान की अनुच्छेद 244, पांचवीं अनुसूची और अनुच्छेद 46 आदिवासियों की भूमि एवं अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करते हैं।
  • राज्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे मामलों में हस्तक्षेप कर शोषण से आदिवासियों की रक्षा करे।

प्रशासनिक लापरवाही या सुनियोजित षड्यंत्र?

  • बिना आवश्यक अनुमति के रजिस्ट्री,
  • दोहराव वाली बिक्री,
  • दस्तावेजों का सतही सत्यापन,
  • जिम्मेदार अधिकारियों का मौन —
    यह सभी संकेत करते हैं कि यह मात्र लापरवाही नहीं बल्कि संभावित संगठित घोटाला हो सकता है।

स्थानीय लोगों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इसमें पटवारी, तहसीलदार, रजिस्ट्रार और भूमाफिया दलालों की मिलीभगत हो सकती है।

गांव में आक्रोश: “ये ज़मीनें हमारी पहचान हैं”

गांव हीराबतर और आस-पास के क्षेत्रों में लोगों में भारी गुस्सा है। आदिवासी समाज का कहना है:

“यह सिर्फ ज़मीन नहीं, हमारी अस्मिता है। कोई कागज़ का टुकड़ा हमारी मातृभूमि को हमसे नहीं छीन सकता।”

प्रशासन की प्रतिक्रिया

जब मीडिया ने तहसीलदार श्री रमेश मेहता से संपर्क किया, तो उन्होंने कहा:

“जमीन की म्युटेशन प्रक्रिया फिलहाल रोकी गई है और पूरे मामले की जानकारी कलेक्टर को दी गई है।”

यह बयान प्रशासन की संवेदनहीनता और जवाबदेही की कमी को दर्शाता है।


जनता की प्रमुख मांगें

  1. रजिस्ट्री को तत्काल निरस्त किया जाए और ज़मीन मूल मालिक गणेशी को वापस सौंपी जाए।
  2. पटवारी, तहसीलदार, रजिस्ट्रार के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो और उन्हें तत्काल निलंबित किया जाए।
  3. SDM या DM स्तर पर विशेष जांच कमेटी गठित की जाए।
  4. जिले में स्थायी निगरानी तंत्र बनाया जाए ताकि ऐसी घटनाएं दोबारा न हों।
  5. पेसा कानून और संविधान के उल्लंघन के आधार पर मामला हाईकोर्ट तक ले जाया जाए।

निष्कर्ष: ज़मीन नहीं, पहचान की लड़ाई

यह मामला केवल एक रजिस्ट्री का नहीं, बल्कि आदिवासी समाज के अस्तित्व और उनके अधिकारों पर हो रहे हमले का प्रतीक बन गया है। अगर सरकार और प्रशासन अब भी मौन रहे, तो यह न्याय के नाम पर एक ऐतिहासिक अन्याय होगा।

अब समय आ गया है कि शासन अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी निभाए — वरना यह चुप्पी भविष्य में बड़े सामाजिक असंतोष का कारण बन सकती है ।

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